पहाड़ पर पहाड़ से भारी महिलाओं की जिंदगी… जिला सिरमौर
Ashoka Times…8 June 23Sirmour (Shobha)
‘मैं अलग कमरे में सोता हूं। सभी भाई अपने-अपने कमरे में पत्नी और बच्चे एक साथ एक अलग कमरे में। रात में वो बारी-बारी सभी भाइयों के कमरे में खुद ही आ जाती है। हम भाइयों को इससे कोई दिक्कत नहीं होती। हम सबने इस मामले में तालमेल बिठा लिया है।’
जिला सिरमौर में बहुपति प्रथा है या एक महिला के साथ उम्र भर चलने वाला शोषण इसका जवाब सदियों बाद भी नहीं मिल पाया है।
जिला सिरमौर में महिलाओं के जीवन पर दैनिक भास्कर ने एक बेहद मार्मिक तस्वीर उकेरी है यह तस्वीर स्त्री जीवन के स्याह रंग को सामने लाती है। जहां बहुपति प्रथा यानी एक स्त्री के शरीर को सभी भाइयों में बांटने के घिनौने सच को रिवाज का नाम दिया गया है। पहाड़ के इस रिवाज को बताने की हिम्मत उत्तम देवी और दीप राम ने बामुश्किल की है।
यह जानने के बाद मैंने उनसे पूछा, ‘जब आपकी पत्नी की शादी आपके भाइयों से हो रही थी. तब आपने मना
जवाब था- ‘शादी तो मुझसे ही हुई थी। उनके साथ तो बस तय हो गया था कि रहना है। हम तो बस घर के बूढ़े-बुजुर्गों की मर्जी से चलते थे। उन्होंने हमसे जो कहा, हमने वो किया।’
मैंने फिर सवाल किया… आपको नहीं लगता कि ये गलत है?
दीपाराम कहने लगे, ‘ये रिवाज है, मुझे गलत नहीं लगता। इससे घर में बंटवारा नहीं होता। हम पहाड़ी लोग हैं। कोई यही रहकर चरवाही कर लेता है, तो कोई काम की तलाश में दूसरे शहर चला जाता है। ऐसा ही मेरे घर में हुआ। इस वजह से मेरे सारे भाई घर पर कम ही आते हैं ।’
प्रकृति की गोद में बसे हिमाचल की इस खूबसूरत और साफ आबोहवा वाले इलाके की एक दूसरी तस्वीर भी है। हिमाचल प्रदेश के सिरौमर का हाटी समुदाय, ये वो बिरादरी है जो बहुपति प्रथा में विश्वास रखता है। सितंबर 2022 में इन्हें ST यानी अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिला है। इनकी कुल आबादी लगभग 2.5 लाख की है।
दैनिक भास्कर की स्टोरी के लिए पत्रकार विशेष तौर पर भोपाल से आए पत्रकार बताते हैं कि हरिपुर धार क्षेत्र सिरमौर के जिला मुख्यालय नाहन से 85 किलोमीटर दूरी पर है।
यही मेरी मुलाकात स्थानीय रिपोर्टर भीम सिंह से होती है। जो मुझे शिलहान गांव लेकर पहुंचते हैं।
पहाड़ की कमर काट कर बनी सड़कों पर गाड़ी जब-जब मुड़ी, जान हलक में आती रही। 18-20 घर और बमुश्किल 180 लोगों की एक पंचायत थी शिलहान । यहां अधिकतर घरों में बहुपति प्रथा थी, लेकिन कोई हमसे बात करने को राजी नहीं था।
काफी मशक्कत के बाद उत्तमू देवी बात करने को राजी हुई। 39 साल की उत्तमू देवी आंगनबाड़ी केंद्र चलाती हैं। इस आंगनबाड़ी में पढ़ने वाला एक बच्चा, उनके पति का है और दूसरा देवर का साल 2006 की 7 फरवरी को जब दीपराम से उनकी शादी हुई तो शर्त ही यही थी कि उन्हें अपने देवर के साथ भी रहना पड़ेगा।
उत्तमू देवी बताती हैं, ‘ये (पति) बोले तो मुझे देवर के साथ रहना पड़ा। ये अगर कहते कि ऐसा नहीं करना है तो मैं भी नहीं करती। पहले मैं तो मुकर रही थी फिर शादी के लिए यह शर्त रख दी गई तो मैं और क्या करती। ‘
आपको बुरा नहीं लगता कि देवर के साथ भी रहना पड़ता है? मैंने फिर सवाल किया।
उत्तम कहती हैं, ‘अब तो 17-18 साल हो गए है, अब बुरा नहीं लगता। पहले इस बारे में सोचते भी थे, लेकिन एक स्त्री कर ही क्या सकती है। खासकर तब जब आपने किसी से प्रेम विवाह किया हो। ‘
आपने प्रेम विवाह किया है, इसके बावजूद शादी के बाद पति और देवर दोनों से एक बराबर प्रेम कैसे करती हैं?
सवाल खत्म होते ही जवाब मिलता है, ‘नहीं-नहीं। प्रेम तो मैं इनसे यानी अपने पति से ही करती हूं। लेकिन अब मैं यह जानना चाहता था कि बच्चों को इस वजह से किस तरह की दिक्कतें होती होंगी?
उत्तमू देवी कहती हैं- ‘उन्हें क्यों दिक्कत होगी। उन्हें तो बाप का नाम पहले ही दे रखा गया है। उन्हें पिता को लेकर कोई कंफ्यूजन नहीं है। बड़े होंगे तो वो अपने आप ही इस परंपरा को समझेंगे।
मैंने थोड़ा और कुरेद कर पूछना चाहा कि जब प्रेम किसी एक से करती हैं तो दूसरे के बच्चे को पालना कैसा लगता होगा?
उत्तमू देवी लगभग बिफर कर कहती हैं, ‘वो बच्चा तो मेरा भी है। नौ महीने तो मेरे पेट में रहा। मैं तो मां हूं न । मैं पति और देवर में प्रेम कम ज्यादा हो सकता है। बच्चों में नहीं, सब बराबर हैं एक मां के लिए।’
आपको नहीं लगता कि आपके साथ गलत हुआ?
‘नहीं जी, गलत की क्या बात है। यहां सब के साथ यही होता है। मुझे इससे कोई शिकायत नहीं । ‘
उत्तमू देवी के पति दीपराम भी बगल में बैठे हैं और उनके कई जवाबों के बीच में टोक चुके हैं।दीपराम कहने लगे, ‘इस तरह की परंपरा और शादी से भाइयों के बीच प्यार बना रहता है। घर में झगड़ा नहीं होता है।
आपका मतलब यह है कि जहां एक ही विवाह होता है, वहां सिर्फ झगड़ा ही होता है?
कहने लगे, ‘नहीं। मेरा वो मतलब नहीं। ऐसी शादी के लिए एक मर्द को अपना बड़ा दिल करना पड़ता है। मैंने कुछ सोच कर ही उत्तमू से कहा था कि मेरे भाई से भी शादी करनी होगी।
अच्छा, क्या सोचा था आपने? मैंने तुंरत सवाल किया। मैं उनकी प्लानिंग समझना चाहता था।
जवाब आया, देखिए, पहाड़ के लोगों के पास जमीन कम होती है। थोड़ी सी जमीन है। सारे भाइयों की अलग-अलग बीवीयां होंगी, बच्चे होंगे तो यह सब में बंट जाएगा। इस समय हम खुश हैं।
परिवार तो ऐसे ही चलता है। यह तर्क देकर दीपराम ने हमें चाय-पानी पूछ लिया। पूरी बातचीत में कई बार दीपराम के पास मेरे सवालों का कोई जवाब नहीं था। वो बस मुस्करा कर परिवार बड़े-बजर्गों का कहा यही
हमने गांव के कुछ और बहुपति प्रथा के विवाहों के बारे में पूछा तो दीपराम ने मुझे जगतराम के बारे में बताया। पहाड़ की एक संकरी पगडंडी पकड़े मैं जगतराम के घर की तरफ बढ़ा। जगतराम रास्ते में ही मिल गए और बैलों के आपस में बार-बार लड़ जाने के कारण परेशान थे।
शिलहान गांव के जगतराम और उनके तीन छोटे भाइयों की शादी एक ही महिला, कांता देवी से हुई है। दो भाई अब दुनिया में नहीं है।
मैंने उन्हें रोक कर अभिवादन किया। वो जल्दी में थे और खड़े-खड़े बात करने लगे। मैंने पूछा कि आपकी पत्नी आप पर नाराज नहीं होती हैं कि मर्जी के बिना उनके चार विवाह कर दिए गए?
‘नाराज क्यों होंगी। हमारा यही रिवाज है। हमारा जीवन पहाड़ों वाला है। घर में कम लोग होंगे तो हर तरह से आसानी रहती है। घर का कोई मामूली सामान भी लाने के लिए पहाड़ों की चढ़ाई उतराई करनी पड़ती है। पैसे रुपए और संपत्ति का विवाद भी नहीं रहता।’ जगतराम से मैंने पूछा- आपके कितने बच्चे हैं? जवाब मिला- ‘मेरे तो 8 बच्चे हैं। 6 बेटियां और 2 बेटे ।’
फिर आप कैसे कह रहे कि पहाड़ में लोग कम रहे तो अच्छा होता है, आपके तो 8 बच्चे हो गए।
वो थोड़ा झेप जाते हैं। कहते हैं, ‘वो तो बेटे के चक्कर में बेटियां होती चली गईं। आखिर बेटा ही तो पिंडदान करता है। ‘
मैं उन्हें एकटक देखने लगता हूं, जगतराम फिर से बोल उठते हैं… आप जो पूछना चाह रहे हो, वो मैं समझ रहा हूं। एक महिला के साथ ज्यादा पुरुष के रहने से कोई दिक्कत नहीं होती।
इस बारे में हम भाई आपस में समझ लेते हैं। हम ही आपस में तय कर लेते हैं कि पत्नी के पास कब कौन जाएगा। कई बार वो खुद ही बारी-बारी सबके पास आ जाती है। अब तो मेरे दो भाई खत्म भी हो चुके हैं।
मैं अब भी मौन हूं। ऐसा नहीं कि मेरे सवाल खत्म हो गए थे। मैं उनके तर्क से चकित हूं।
वो अब भी बोलते जाते हैं, ‘हमारे बुजुर्ग भी यही कहते थे कि कोई भाई ऐसा न करना कि एक सुख भोगे और दूसरा परेशान रहे। आपस में दिमाग लड़ा लेना, सबको मौका मिलना चाहिए।
मौका? आपने कभी स्त्री की मर्जी पूछी ?
जगतराम ने कहा, ‘अरे, पत्नी को तो पता ही होता था। मर्जी की क्या बात ।
जगतराम की रोजी-रोटी चरवाही से चलती है। उनके पास दो बैल और तीन गाय हैं। उन्हें नहीं मालूम कि वो जो कह रहे हैं, सुनने में कैसा लग रहा है। वो कभी गांव से बाहर नहीं गए।
कस्बे और जिला मुख्यालय गए भी उन्हें 10 साल हो वो गए। इसके बावजूद वो बदलते समय से अवगत है। इसलिए मर्जी के सवाल पर वो जमाने का जिक्र करते हैं और बैलों के लड़ने का हवाला देकर आगे बढ़ जाते हैं।
हमें रास्ता दिखाने आए दीपराम एक शख्स की ओर इशारा कर कहते हैं कि ये जगतराम के छोटे भाई का लड़का गोविंद है। गेहुएं शरीर वाले गोविंद की उम्र 30 साल है। बेतरतीब दाढ़ी और लंबे बालों वाले गोविंद ने शॉल कंधे से उतार कर हमारा अभिवादन किया। मैंने पिता और मां के संबंध में सवाल करना चाहा तो वो चुप हो गए।
फिर बोले, ‘देखिए मुझे इस बारे में कोई बात नहीं करनी। ये सब उनकी करनी है वो ही जाने। आप प्लीज वीडियो न बनाना।’
मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि वीडियो नहीं बनाएंगे, आप बात कर लें। उन्होंने फिर भी इनकार किया और पहाड़ के दूसरे छोर की पगडंडी पकड़ कर उतरते चले गए। हमारे पास उन्हें जाते देखने के अलावा कोई चारा नहीं था।
सारी बातें सुनने के बाद मैं देवरों का पक्ष जानना चाहता था, जिन्हें भाभी के साथ रहने का अधिकार मिला है। मैंने पूछा कि देवरों से शादी बकायदा होती है या सिर्फ परंपरा को निभाया जाता है?
स्थानीय लोग कहते हैं, ‘नहीं देवरों के साथ शादी की रस्में नहीं होती, लड़की उसके साथ फेरे नहीं लेती। बस सेटलमेंट होता है। देवर चाहे तो किसी महिला से शादी कर सकता है। लेकिन ऐसा बहुत कम ही देखने को मिलता है।’
हमारा अगला पड़ाव था रनवां गांव। यहां हमें 70 साल की सोंकी देवी मिलीं। बातचीत में बेबाक सोंकी देवी अपने पति की दूसरी बीवी थीं। उन्हें देवर से भी शादी करनी पड़ी।
परंपरा का तर्क देकर सोंकी देवी ने भी जमाने और बुजुर्गों का ही हवाला दिया। लेकिन अपने जीवन का एक राज भी सांझा किया।
कहती हैं, ‘मैं जब ससुराल आई तो पहली पत्नी का एक बेटा था। मैंने सोच लिया कि अब बच्चे नहीं करूंगी, भले देवर के साथ भी क्यों न रहना पड़े।
मैंने अपना चार माह का बच्चा भी गिरा दिया। अगर बच्चा पैदा करती तो आखिर इन बच्चों का कौन होता?
मैंने पूछा- आपको नहीं लगा कि आप भी मां बने ?
बोलीं- ‘लगा था न बेटा, मगर इस बच्चे का क्या होता? अपने बच्चे होते तो उन पर दिल जाता। इनकी मां बन कर रहना भी ठीक ही था। जिंदगी का क्या है, ऐसे ही चलती है इधर…
तो आप खुश हैं?
उन्होंने कहा- ‘हां, मैं खुश हूं। मुझे किसी चीज की कमी नहीं है। पति जिंदा है, बेटा है, घर है मेरे हाथ-पांव चल रहे हैं।’
मेरा सवाल था- इसका मतलब आप चाहती हैं कि यह प्रथा आगे भी चलती रहे?
जवाब मिला- ‘नहीं, किसी को अपनी जिंदगी नहीं खराब करनी चाहिए। हमारा जमाना और था हम अनपढ़ थे।
विरोधाभाष से भरी बातें करती हुई सोंकी देवी अंत में महिलाओं के साथ खड़ी होती हैं। मगर वो अपने इरादे खुल कर जाहिर नहीं करती। वो आने वाली पीढ़ी की लड़कियों को ऐसा न करने को तो कहती हैं मगर बदलते जमाने का आड़ ले लेती हैं।
परंपरा और प्रथा के घाव ने सोंकी देवी जैसी हजारों महिलाओं को सदियों से पीड़ित रखा है। पुरुषों की रची गई दुनिया में पहाड़ी महिला को भी अपने शरीर के साझा होने का दुख महसूस नहीं होता।
अगर कभी हो भी जाता है तो वो आने वाली पीढ़ी की लड़कियों को नसीहत देकर बस चुप हो जाती हैं।
इस रिवाज कहें या प्रथा लेकिन महिलाएं आज भी खुलकर सामने नहीं आती है झूठ कहते हैं वह लोग जो कहते हैं कि 21वीं सदी चल रही है लेकिन पहाड़ पर आज भी सदियों पुरानी प्रथा विशेष तौर पर महिलाओं के पैरों में बहुपति प्रथाओं की बेड़ियां आज भी उतनी ही मजबूत है जितनी कि 100 साल पहले हुआ करती थी।
शर्म की बात तो यह है कि आज भी इस प्रथा के विरुद्ध ना तो कभी समाजसेवी महिलाओं के ग्रुप सामने आते हैं और ना ही प्रशासन अपनी जागरूकता अभियान जैसी जिम्मेदारी इस ओर कभी निभा पाता है दरअसल यह प्रथा है जिसकी लपटों में महिलाओं को झोंक तो दिया जाता है लेकिन जलती हुई नजर कभी नहीं आती। हालांकि आने वाली पीढ़ी इस प्रथा से किनारा करते नजर आ रही है ऐसा लगता है कि आने वाली पीढ़ी का भविष्य इससे बिल्कुल अलग होगा विशेष तौर पर महिलाओं का।
आभार विशेष तौर पर दैनिक भास्कर…