Ashoka Times…4 august 2025 (लेखक सुरेंद्र बासंल)
भारत जैसी जनसंख्या वाले देश में मीठे पानी के स्रोत तेजी के साथ काम हो रहे हैं। असमंजस की बात यह है कि भारत में कोई भी विभाग मीठे पानी के आंकड़ों के बारे में नहीं बता पा रहा है।
सदियों से हमारी गिनती प्राकृतिक संसाधनों से संपन्नुतम देशों में होती रही है। लेकिन बीते दो सौ वर्षों की आधी-अधूरी और देश विस्मृत शिक्षा व्यवस्था के कारण हमारा समाज आज प्रकृति के इन उपकारों को भूल गया है।
नतीजतन भयंकर वन विनाश के चलते भूक्षरण की घटनाएं होती हैं और वर्षाजल अपने साथ उपजाऊ मिट्टी समुद्र में बहा ले जाता है। तालाब, झील, पोखर नदियों जैसे सार्वजनिक जलाशयों की दुर्गति ने समस्या को बढ़ाया ही है। नलकूपों और सबमर्सिबलों के बढ़ते चलन ने भूमिगत जल को भी निजी मिकियत बना दिया है। हमारी देवी स्वरूपा नदियां आज शहरी और औद्योगिक कचरा ठिकाने लगाने का साधन बन कर रह गई हैं।
एक समय ऐसा भी था, जब हमारे शहरों, कस्बों और गांवों में तालाब, पोखर एक पवित्र सार्वजनिक संपदा की तरह संभाल कर रखे जाते थे। प्रतिवर्ष इन जलकोषों की साफ-सफाई और गाद निकालने का काम समाज खुद करता था । लेकिन नीति निर्माता ने पोखर तालाब को जैसे किफायती प्राकृतिक परियोजनाओं को भरपूर अपेक्षा कर उन्हें अनुपयोगी मान लिया। बता दे कि अब तक किसी भी सरकार ने देश में मीठे पानी के आंकड़ों का सर्वेक्षण अब तक नहीं करवाया है । देश में आखिर कितना पानी है? प्रतिवर्ष बिगड़ते हालात के बावजूद हम कभी अपने जल संसाधनों की चिंता नहीं करते, बल्कि उनका उपभोग लापरवाही से कर रहे हैं। कितनी विचित्र बात है कि देश में उपलब्ध जल राशि के बारे में सही तथ्य आंकड़े इकट्ठा करने को हमारी सरकारों के पास कोई प्रबंध नहीं है। कुशल नीति बनाने और संसाधनों के उचित प्रबंध तो दूर की बात है। देश भर में घरेलू उपयोग और सिंचाई के लिए जितना पानी रोजाना खर्च होता है, उससे कई गुना अधिक पानी तो प्रतिदिन हमारे-आपके वाहनों की धुलाई में व्यर्थ हो रहा है, वह भी पीने योग्य मीठा पानी। अगर हम सिर्फ हरियाणा, पंजाब और राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की जलनीति को देखें, तो रोना आता है। जिस हरियाणा, पंजाब में जंगल आज नाममात्र के बचे हैं, वहां आज लगभग तीस लाख सबमर्सिबल चल रहे हैं। उसमें से अकेले पंजाब में ही साढ़े 18 लाख सबमर्सिबल दिन-रात भू-जल उलीच रहे हैं। इन दोनों राज्यों के लगभग 70 प्रतिशत भू-जल क्षेत्र डार्क जोन में हैं। राजधानी दिल्ली की हालत तो और अधिक दयनीय है। प्रतिवर्ष फरवरी-मार्च में दिल्ली में पानी की खूब किल्लत होने लगती है, लेकिन मजा देखिए कि दिल्ली के अधिकांश नेताओं के घरों में छोटे-बड़े ‘स्विमिंग पूल’ अवश्य मिल जाएंगे। पानी के टैंकर माफिया तो अब ‘संरक्षित माफिया’ की श्रेणी में आते हैं। आज देश में उपलब्ध पानी का लगभग 70 प्रतिशत भाग प्रदूषण हो चुका है। इस प्रदूषित पानी के सेवन से कई बीमारियां पैदा होती है, जिससे असंख्य कार्यदिवस नष्ट हो रहे हैं। गैर जरूरी विकास के नशे में धुत हमें इसका जरा भी बोध नहीं के प्रकृति संसाधन कितनी कीमती है।
देश में बनने वाली प्रत्येक नीति का आधार मात्र इतना होना चाहिए कि वह प्रकृति सम्मत और पर्यावरण के अनुकूल हो। आर्थिक और सामाजिक विकास का रूप कैसा होना चाहिए, यह नीति निर्धारकों को स्पष्ट होना हो चाहिए, क्योंकि इसी पर निर्भर होगा कि हमारे जल संसाधनों में सुधार होगा या नहीं। तथाकथित विकास नाम पर हमने कुछ ऐसा ढांचा रच लिया है, जो है अपने आसपास के पर्यावरण से जोड़ने के बजाय तोड़ता अधिक है। विज्ञान और तकनीक का भले विकास हुआ हो, प्रकृति से तालमेल बिठाने के मामले में हम लगातार पीछे चले गए हैं। विज्ञान और तकनीक भी तभी सार्थक और लाभकारी होते हैं। जब समय सिद्ध और स्वयं सिद्ध मुल्य अपनाएं जाएं।
विकास का व्यापक और विराट अर्थ प्रकृति प्राकृतिक संसाधनों को निरंतर समृद्ध करना है। वह सतत बहने वाली प्रक्रिया है, जो समाज के हर स्तर को पहले से अधिक स्वावलंबी, सहज, सरल और तनाव रहित बनाए। समाज और देश का स्वावलंबन तब तक संभव नहीं, जब तक भीतर-बाहर के पंचभूत समृद्ध नहीं होते और ये समृद्धि राज और समाज में दूरी बढ़ाने से नहीं बल्कि जनभागीदारी से संभव होगी। उपभोग के ढांचे के प्रति बेहद सावधानी बरतने संभव होगी। अपनी अनमोल परंपराओं पर श्रद्धा की पुनस्थापना संभव होगी। मछुआरों, कुम्हारों, आदिवासियों, पशुपालक को किसने और मिट्टी पर नंगे पांव चलने वालों की बात सुनने से संभव होगी । लोक व्यवहार के मूल्य को गाली देने से जो अंधे बीहड़ हमने अपने आसपास रच लिए हैं उसमें निरर्थक बुद्धिकता और सामाजिक तल्खी के कैक्टस तो उगाई जा सकते हैं खिलखिलाते पारिजात नहीं ।